इश्क़ सा लगता है तू....
मासूमियत है लफ़्ज़ों का तू
जो शिद्दत से बयां हो जाते हैं
ख़ुमार है उन शामों का तू
जिस पर कयी दास्ताँ बन जाते हैं
सिमट के रहना आता नहीं तुझे
दिल-ए-बाजार का ताज है तू
गिरफ्त में तेरी आज जहां ये सारा
गलियों का भी सरताज है तू
खोए हुए उन आखों की
शर्म का हकदार है तू
जिसे गले लगाए जाके
उनकी धड़कनों का मोहताज है तू
तस्वीर भी तू
तसव्वुर भी तू
जीने का बहाना बन जाता है तू
दिन भी तू
रात भी तू
हकीकत का नमूना बन जाता है तू
उलझन सी होती जो महसूस
उस दीवानेपन की आहट है तू
शोर भी ग़मगीन सा लगे
उस घड़ी का भी वफादार है तू
वक़्त भी तू, वक़्त की इनायत भी तू
लफ्ज़ कम हैं अब बाकी
बताएं ज़रा अब
क्या यही इश्क़ है तू?
Priya H. Rai